यदि त्याग, साधना और धैर्य को मिट्टी की कोख से जन्मी कोई स्त्री-सत्ता मिल जाए, तो वह निःसंदेह लहरी बाई होंगी। वह स्त्री, जिसने सूक्ष्म अन्न कणों में संपूर्ण जीवन की साधना देखी, जिसने अपने श्रम और प्रेम से उन बीजों को सहेजा, जिन्हें सभ्यता ने विस्मृत कर दिया था। वह केवल एक कृषिका नहीं, अपितु वह धरती की धैर्यशील माता हैं, जिनकी हथेलियों में अंकुरित होते अनाज के कण, समय के चक्र को पुनः जीवन देते हैं।
मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल में जन्मी यह अद्वितीय महिला किसी महल की रानी नहीं, परंतु बीजों की संरक्षिका और अनाज की देवी अवश्य हैं। जब आधुनिक कृषि बाज़ार की चकाचौंध में मोटे अनाज (मिलेट्स) उपेक्षित हो गए, तब लहरी बाई ने इन बीजों को अपनी ममता में पाला। अकेले अपने संकल्प के बल पर उन्होंने 150 से अधिक प्रकार के मिलेट्स को संरक्षित किया, बिना किसी सरकारी सहायता के, बिना किसी विशेष संसाधन के केवल अपनी मिट्टी की थाती और परिश्रम की पूंजी पर।वह खेतों में केवल अन्न नहीं उगातीं, बल्कि उस सांस्कृतिक विरासत को भी सहेजती हैं, जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों तक संजोया था। आज, जब सुपरफूड के नाम पर पश्चिमी दुनिया उन्हीं अनाजों को दोबारा खोज रही है, जिन्हें हमने भुला दिया था, तब लहरी बाई की तपस्या और भी मूल्यवान हो जाती है। वह न केवल जैव विविधता की रक्षक हैं, बल्कि एक विचारधारा हैं,एक ऐसी प्रेरणा, जो हमें प्रकृति के साथ सहजीवन का पाठ पढ़ाती है।
उनका जीवन सिद्ध करता है कि सशक्तिकरण केवल आधुनिकता की देन नहीं, बल्कि धैर्य, परिश्रम और आत्मनिर्भरता में निहित होता है। जो बीजों की भीख मांगकर उन्हें बचाने में जुटी थीं, वही आज “मिलेट क्वीन” के रूप में एक वैश्विक प्रेरणा बन गई हैं। उनके श्रम के कारण ही भारत आज मोटे अनाजों के पुनर्जागरण का साक्षी बन रहा है।
लहरी बाई एक ऐसी स्त्री, जिसने मिट्टी की गंध से पहचान बनाई, और जो अपने कर्म से स्वयं अन्नपूर्णा बन गईं।