भारत को यदि “त्योहारों की भूमि” कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां हर राज्य की अपनी परंपराएं, विश्वास और त्योहार हैं, जो न केवल धार्मिकता से जुड़े होते हैं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान भी बनाते हैं। राजस्थान की धरती पर एक ऐसा ही अनुपम और अत्यंत पूज्यनीय पर्व मनाया जाता है –
गणगौर। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि नारी सशक्तिकरण, पारिवारिक समर्पण और लोकसंस्कृति का जीवंत प्रतीक है।
गणगौर का शाब्दिक और पौराणिक अर्थ
“गणगौर” शब्द दो भागों से बना है — ‘गण’, जो भगवान शिव का प्रतीक है, और ‘गौर’, जो देवी पार्वती (गौरी) का प्रतिनिधित्व करता है। इस पर्व के केंद्र में देवी गौरी की पूजा होती है, जो सौभाग्य, समर्पण और शक्ति की प्रतीक मानी जाती हैं। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, माता गौरी ने कठोर तप करके शिव को पति रूप में प्राप्त किया था। उसी स्मृति में यह पर्व स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है।

उद्देश्य और श्रद्धा
गणगौर व्रत का मुख्य उद्देश्य है —
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कुँवारी लड़कियों द्वारा अच्छे वर की प्राप्ति के लिए व्रत करना।
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विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी उम्र, समृद्धि और पारिवारिक सुख की कामना।
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नारी धर्म, त्याग और श्रद्धा को उजागर करना।
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लोकपरंपरा और संस्कृति को जीवित रखना।
इस पर्व में आस्था, परंपरा, सौंदर्य और सामूहिकता का अद्भुत संगम होता है।
पूजा विधि और उत्सव की अवधि
गणगौर की पूजा का आरंभ होली के दूसरे दिन से होता है और यह पर्व 16 दिनों तक मनाया जाता है।
पूजा की प्रमुख विधियाँ:
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महिलाएं व बालिकाएं मिट्टी, लकड़ी या धातु की गौरी-गण की मूर्तियाँ बनाती हैं।
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रोज सुबह स्नान करके मूर्तियों का श्रृंगार किया जाता है और भक्ति गीतों के साथ पूजा की जाती है।
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महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं और हाथों में मेंहदी रचाती हैं।
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दिन के अंत में गीत गाकर घुड़ला निकाला जाता है, जिसमें सिर पर मिट्टी के जलते दीप वाले घड़े रखकर महिलाएं और कन्याएं जल भरने जाती हैं।
लोक गीतों और नृत्य की परंपरा
राजस्थानी लोकगीत गणगौर की आत्मा हैं। इन गीतों में पार्वती के श्रृंगार, ईसर की घोड़ी पर आगमन, और कन्याओं की भावनाओं का सुंदर वर्णन होता है।
प्रमुख गीत:
नृत्य में महिलाएं समूह में लोकसंगीत की धुन पर थिरकती हैं, जिससे वातावरण पूरी तरह भक्ति और उत्साह में रंग जाता है।

लोक कथाएं: आस्था की अमिट छाप
राजस्थान की लोककथाओं में गणगौर की कई कहानियाँ हैं, जिनमें से एक प्रसिद्ध कथा इस प्रकार है:
एक निर्धन ब्राह्मण की कन्या हर वर्ष श्रद्धा से गणगौर का व्रत करती थी। उसने मिट्टी से मूर्तियाँ बनाईं और श्रद्धा से पूजा की। एक दिन राजा की दृष्टि उस पर पड़ी और उसकी भक्ति से प्रभावित होकर उसने उससे विवाह कर लिया। देवी गौरी ने स्वप्न में आकर आशीर्वाद दिया — “तेरा सौभाग्य अमर रहे।”
यह कथा बताती है कि श्रद्धा और समर्पण से किया गया कोई भी व्रत व्यर्थ नहीं जाता।
गणगौर पर्व का भव्य आयोजन
राजस्थान में:
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जयपुर की गणगौर यात्रा विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ शाही वस्त्रों में सजी महिलाएं, घोड़ों पर ईसर, और गवर की पालकी निकाली जाती है।
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उदयपुर में पिछोला झील से गणगौर की जलयात्रा निकलती है, जिसमें नौकाएँ, झाँकियाँ और राजपरिवार भाग लेते हैं।
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बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, नाथद्वारा में भी यह पर्व पारंपरिक लोकनाट्य, गीत और उत्सवों के साथ मनाया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में:
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गाँवों की महिलाएं पारंपरिक गीतों के साथ ढोलक बजाकर पूजा करती हैं।
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गणगौर के दिन घर की बहू-बेटियाँ मायके जाती हैं, और यह दिन नारी की स्वतंत्रता व आत्मीयता का प्रतीक माना जाता है।
गणगौर और आधुनिक समाज
आज के तकनीकी और व्यस्त जीवन में भी गणगौर पर्व की प्रासंगिकता बनी हुई है। यह पर्व नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, परंपरा और स्त्री शक्ति के महत्व से जोड़ता है। विद्यालयों, महाविद्यालयों, महिला मंडलों और सांस्कृतिक संस्थाओं में गणगौर पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिससे बालिकाओं को लोक साहित्य, नारी सशक्तिकरण, और सामूहिकता की शिक्षा मिलती है।
नारी के मन का उत्सव
गणगौर, स्त्री के भीतर की गौरी शक्ति को पहचानने का पर्व है। इसमें उसकी भावनाएँ, इच्छाएँ और सामाजिक महत्व जुड़ा होता है। यह पर्व उसके सौंदर्य, श्रद्धा और आत्मबल को समाज के सामने प्रस्तुत करता है।
गणगौर केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, यह लोक संस्कृति, नारी गरिमा और सामाजिक सौहार्द का उत्सव है। यह पर्व भारतीय परंपरा की उस आत्मा को उजागर करता है जो सादगी, आस्था और प्रेम से परिपूर्ण है। गणगौर हमें यह सिखाता है कि जहाँ स्त्री की पूजा होती है, वहाँ समाज समृद्ध होता है।
यह पर्व नारी को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि परंपरा और शक्ति की वाहक बनाता है।