बीकानेर: राजस्थान की धरोहर कही जाने वाली मारवाड़ी संस्कृति आज एक गंभीर सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रही है। यह बदलाव केवल जीवनशैली तक सीमित नहीं, बल्कि समाज की बुनियाद कहे जाने वाले संयुक्त परिवारों के टूटने और एकांकी परिवार व्यवस्था के बढ़ते चलन से उपजा संकट है, जो पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं, मूल्यों और सामाजिक संरचना को गहरा आघात पहुंचा रहा है।
जहां एक ओर आधुनिकता, शिक्षा और शहरीकरण ने मारवाड़ी समाज को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई है, वहीं दूसरी ओर उसी आधुनिकता के प्रभाव में आज पारिवारिक एकता, रिश्तों की गहराई और सामूहिक जिम्मेदारियों की भावना तेजी से लुप्त हो रही है। “हम दो, हमारे दो” जैसी नीतियों और बढ़ती व्यक्तिगत स्वतंत्रता ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को कमजोर कर दिया है। आज एक ही छत के नीचे दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन और उनके बच्चे मिलकर रहने की परंपरा इतिहास बनती जा रही है।
परंपराओं पर असर
मारवाड़ी संस्कृति में पारिवारिक उत्सवों, शादियों, धार्मिक आयोजन और त्यौहारों को बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। एक ही आंगन में सौ-सौ रिश्ते जीवंत रहते थे, जहां हर दिन एक सामाजिक अनुभव होता था। अब न्यूक्लियर फैमिली में वह सामाजिक अभ्यास नहीं रहा। सामूहिक निर्णयों की जगह अब व्यक्तिगत सोच ने ले ली है, जिससे संवेदनशीलता, सहिष्णुता और सहयोग जैसे गुण पीछे छूटते जा रहे हैं।
भाषा और परिधान की उपेक्षा
संयुक्त परिवारों में मारवाड़ी बोली सहज रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती थी। परंतु आज की पीढ़ी न तो घर में मारवाड़ी बोलती है, न ही समझती है। पारंपरिक पहनावे ओढ़नी, पगड़ी, धोती अब त्योहारों या विवाह समारोहों तक सीमित रह गए हैं। पश्चिमी परिधान और भाषा ने सांस्कृतिक आत्माभिमान को धुंधला कर दिया है।
व्यवसाय और स्त्रियों की भूमिका में बदलाव
मारवाड़ी समाज में संयुक्त परिवार केवल सामाजिक नहीं, आर्थिक इकाई भी होता था। पारिवारिक व्यवसाय में हर सदस्य की भागीदारी रहती थी। अब युवा पीढ़ी नौकरी और एकल जीवन को प्राथमिकता देती है, जिससे पारिवारिक उद्यमों का अस्तित्व संकट में है। स्त्रियों की स्थिति भी दोधारी हो गई है। संयुक्त परिवार में वे गृहस्थी की धुरी थीं, लेकिन अब एकल परिवार में वे अकेलेपन और मानसिक तनाव से जूझ रही हैं, भले ही उन्हें स्वतंत्रता अधिक मिली हो।
यह केवल एक सामाजिक परिवर्तन नहीं, बल्कि संस्कृति के विलुप्त होने का गंभीर संकेत है। यदि समय रहते मारवाड़ी समाज ने अपनी परंपराओं, पारिवारिक मूल्यों और भाषा को बचाने की ठोस पहल नहीं की, तो आने वाली पीढ़ियों के पास अपनी सांस्कृतिक पहचान सिर्फ किताबों और तस्वीरों में ही शेष रह जाएगी।