जालौर (राजस्थान) – रविवार सुबह एक चौंकाने वाली घटना में जालौर जिला कारागृह में हत्या के आरोप में बंद दो कैदी आपस में भिड़ गए। घटना सुबह 8 बजे की बताई जा रही है जब आहोर निवासी जबरसिंह और आलसंग निवासी सुरेश के बीच कहासुनी ने हिंसक रूप ले लिया। सुरेश पिछले 7 महीनों से जेल में बंद है जबकि जबरसिंह के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत मुकदमा चल रहा है।
इस भिड़ंत में एक कैदी के सिर में गंभीर चोट आई है। जेल प्रशासन द्वारा पुलिस को सूचना देने के बाद दोनों का इलाज करवाया गया। जालौर जिला कारागृह के उपाध्यक्ष गानाराम ने मामले की पुष्टि करते हुए बताया कि घटना की जांच की जा रही है।
क्या यह केवल अपराधियों की गलती है?
किसी भी आपराधिक गतिविधि को केवल अपराधी की सोच तक सीमित मान लेना एक सरलीकृत और अधूरी व्याख्या है। जब कोई अपराधी समाज में रहकर अपराध करता है, तब हम उसे व्यक्तिगत दोष देते हैं, लेकिन जब वही अपराधी जेल के भीतर हिंसा करता है, तब यह केवल उसकी गलती नहीं होती – यह जेल प्रशासन, व्यवस्था और पूरे सुधारात्मक ढांचे की विफलता बन जाती है।
1981 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘कालिया’ इस बात को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाती है कि कैसे एक सामान्य अपराधी, जो पहली बार जेल जाता है, वहाँ की दुर्व्यवस्था और अमानवीय माहौल उसे अपराध की गहराइयों में धकेल देता है।
जेल – सुधारगृह या अपराध की प्रयोगशाला?
भारत की जेलों को ‘सुधारगृह’ कहा जाता है, लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। जेलों में न तो सुधार की कोई स्पष्ट प्रक्रिया है, न ही अपराधियों को पुनर्वास की दिशा में प्रेरित करने वाला वातावरण। हिंसा, भेदभाव, मानसिक उत्पीड़न और भ्रष्टाचार जेल की आम सच्चाई बन चुके हैं।
आज के समय में मोबाइल फोन, ड्रग्स, और हथियार जैसे खतरनाक संसाधन भी जेलों के अंदर पहुंच रहे हैं। यह तब और अधिक खतरनाक हो जाता है जब जेल प्रशासन की मिलीभगत से गैंगस्टर और गुंडे अंदर बैठकर भी अपना नेटवर्क चलाते रहते हैं।
अपराधियों को समाज से बहिष्कृत करना नहीं है समाधान
समाज में यह आम धारणा है कि किसी अपराधी को जेल में डाल देने से समस्या खत्म हो जाती है। लेकिन यह केवल एक झूठा सामाजिक आश्वासन है। अपराधियों को समाज से बाहर कर देना बीमारी का इलाज नहीं, बल्कि उसे ढक देना है।
हर अपराधी किसी न किसी वजह से बागी बनता है – कभी गरीबी, कभी अन्याय, कभी अवसर की कमी से। उन्हें केवल सजा देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनकी मानसिक कुंठा को समाप्त करना, उन्हें नैतिक मूल्य सिखाना और समाज का हिस्सा बनाना ही जेल का उद्देश्य होना चाहिए।
जब प्रशासन ही बने समस्या का हिस्सा
जब जेल के अंदर भी सुरक्षा का माहौल नहीं हो, और अपराधी एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने रहें, तो यह सवाल उठता है कि क्या जेल प्रशासन अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है? क्या इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए हैं?
आज आवश्यकता है कि जेल प्रशासन पर कड़ी निगरानी रखी जाए, कैदियों के मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए, और सुधारात्मक उपायों को नारे से निकालकर व्यवहारिक योजना में बदला जाए।
जालौर जेल की यह घटना केवल एक जेल विवाद नहीं, बल्कि भारतीय जेल व्यवस्था की जमीनी हकीकत का आईना है। यदि हम वास्तव में समाज से अपराध समाप्त करना चाहते हैं, तो हमें जेलों को दंड स्थल नहीं, सुधार स्थल बनाना होगा। वरना हर कैदी, जो जेल में आता है, एक छोटा अपराधी होकर आता है और बड़ा अपराधी बनकर बाहर जाता है।