भरतपुर (राजस्थान), 8 जून 2025 राजस्थान के भरतपुर ज़िले के पीलूपुरा क्षेत्र में शनिवार को गुर्जर समाज के सैकड़ों लोगों ने एक बार फिर रेलवे ट्रैक जाम कर दिया। दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग पर ट्रेनें रोकी गईं, जिससे यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के नेता विजय बैंसला और राज्य सरकार के बीच हुए समझौते को समुदाय के कुछ वर्गों ने मानने से इनकार कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि समझौता आधा-अधूरा है और उनके मूल अधिकारों की अनदेखी की गई है।

क्या है मामला?

गुर्जर समाज लंबे समय से 5% आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन करता आ रहा है। उनका दावा है कि उन्हें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। इस मांग को लेकर पहले भी कई बार आंदोलन हुए हैं, जिनमें रेलवे ट्रैक और सड़कें जाम की गईं। वर्ष 2007, 2008 और 2010 में हुए आंदोलनों के दौरान हिंसक झड़पें हुईं और कई लोगों की जान भी गई थी। इस बार आंदोलन भरतपुर के पीलूपुरा में केंद्रित है, जो 2008 के ऐतिहासिक आंदोलन का मुख्य केंद्र भी रहा है। समाज के लोग कहते हैं कि पिछली सरकारों ने वादे तो किए, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं किया गया। अब एक बार फिर आंदोलन की लपटें तेज हो गई हैं।

कैसा हुआ समझौता?

विजय बैंसला और राजस्थान सरकार के बीच पिछले सप्ताह जयपुर में एक बैठक हुई थी, जिसमें यह तय किया गया कि गुर्जर समाज को OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) में ही विशेष बैकवर्ड कैटेगरी (SBC) के तहत 5% आरक्षण दिया जाएगा। साथ ही, आंदोलन के दौरान दर्ज किए गए मामलों को भी वापस लिया जाएगा और समाज के युवाओं की भर्ती प्रक्रिया में प्राथमिकता दी जाएगी। हालांकि, समाज के एक बड़े वर्ग ने इस समझौते को “कागजी” करार देते हुए अस्वीकार कर दिया है। उनका कहना है कि जब तक आरक्षण को संवैधानिक रूप से लागू नहीं किया जाएगा और न्यायिक समीक्षा में नहीं टिकेगा, तब तक ऐसे समझौते निरर्थक हैं।

समाज की पीड़ा और आंदोलन की पृष्ठभूमि

गुर्जर समाज मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। यह समाज खेती, पशुपालन और सेना में योगदान के लिए जाना जाता है। वर्ष 2006 में पहली बार तब यह मांग सामने आई जब गुर्जरों ने खुद को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल करने की मांग की। लेकिन सरकार ने यह मांग अस्वीकार कर दी और 5% आरक्षण देने की घोषणा की, जो बाद में कोर्ट में टिक नहीं पाया। इसके बाद आंदोलन समय-समय पर उठते रहे। वसुंधरा राजे की सरकार के दौरान भी गुर्जरों को समझाने के लिए प्रयास हुए और एक कानून पास किया गया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की अधिकतम 50% आरक्षण सीमा की वजह से वह अमल में नहीं आ सका।

विरोध क्यों?

गुर्जर समाज के लोगों का कहना है कि समझौते में स्थायित्व नहीं है। वे मांग कर रहे हैं कि यह आरक्षण केंद्र सरकार द्वारा संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल हो, जिससे यह न्यायिक चुनौती से सुरक्षित रहे। साथ ही, वे चाहते हैं कि आंदोलन के दौरान मृतकों को “शहीद” का दर्जा दिया जाए और उनके परिजनों को सरकारी नौकरी दी जाए।

राजनीतिक दृष्टिकोण

राजनीतिक दलों पर भी सवाल उठ रहे हैं कि हर चुनाव के समय गुर्जर समाज को आश्वासन दिया जाता है लेकिन फिर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। सोशल मीडिया पर भी इस आंदोलन को लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, जहां कई लोग कह रहे हैं, “जब वसुंधरा राजे ने मामले को शांत किया था, अब फिर से क्यों ट्रेनें रोकी जा रही हैं?”

प्रशासन की प्रतिक्रिया

भरतपुर प्रशासन ने मौके पर भारी पुलिस बल तैनात कर दिया है। जिला कलेक्टर और एसपी खुद स्थिति पर नजर बनाए हुए हैं। रेलवे अधिकारियों ने कुछ ट्रेनों को डायवर्ट कर दिया है और कुछ रद्द कर दी गई हैं। प्रशासन द्वारा समझाने का प्रयास किया गया लेकिन प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वे तब तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक उनकी मांगें लिखित में पूरी नहीं की जातीं।

गुर्जर समाज को आरक्षण की आवश्यकता है या नहीं

यह एक ऐसा प्रश्न है जो सामाजिक, ऐतिहासिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ है। यह समुदाय मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली में फैला हुआ है, और पारंपरिक रूप से कृषि और पशुपालन से जुड़ा रहा है। इसके साथ ही, सेना और पुलिस बलों में भी गुर्जर समाज की एक सशक्त उपस्थिति रही है। समाज के कई हिस्से शहरीकरण और शिक्षा की ओर बढ़े हैं, लेकिन कई क्षेत्र अब भी पिछड़े हुए हैं। गुर्जर समाज द्वारा आरक्षण की मांग के पीछे मुख्य तर्क यह है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी शिक्षा, सरकारी नौकरियों और आर्थिक अवसरों से वंचित है। उनका मानना है कि जब अन्य समुदायों जैसे मीणा समाज को अनुसूचित जनजाति (ST) का आरक्षण मिल सकता है, तो गुर्जर जैसे सीमांत वर्ग को भी समान अवसर मिलने चाहिए। उनका यह भी कहना है कि सरकारी सेवाओं और उच्च शिक्षा संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। 2006 से 2008 के बीच राज्य सरकार ने गुर्जर समाज को विशेष पिछड़ा वर्ग (SBC) के तहत आरक्षण देने का वादा किया था, परंतु सुप्रीम कोर्ट की 50% आरक्षण सीमा के चलते यह वादा कानूनी अड़चनों में फंस गया।

वहीं दूसरी ओर, कुछ तर्क आरक्षण के विरोध में भी सामने आते हैं। विरोध करने वालों का मानना है कि गुर्जर समाज के कई वर्ग पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत हैं। खासकर राजनीति, स्थानीय व्यापार और ज़मींदारी में उनकी मजबूत पकड़ है। उनका यह भी कहना है कि आरक्षण की सुविधा केवल उन्हीं वर्गों को दी जानी चाहिए जो वास्तव में वंचित हैं। यदि अपेक्षाकृत सक्षम वर्गों को भी आरक्षण मिल जाता है, तो इससे अन्य जरूरतमंद पिछड़े वर्गों के अवसर छिन सकते हैं। इसके अतिरिक्त, इस मुद्दे को लेकर समय-समय पर होने वाले आंदोलन और ट्रेनों को रोकने जैसे कदमों से यह भी आरोप लगता है कि आरक्षण को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि गुर्जर समाज को आरक्षण देना है, तो इसका आधार ठोस डेटा होना चाहिए। इसके लिए एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की आवश्यकता है जिसमें शिक्षा, आय, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए। साथ ही संविधान और सुप्रीम कोर्ट की निर्धारित सीमाओं को ध्यान में रखते हुए आरक्षण की नीति बनाई जानी चाहिए। समाज के भीतर ‘क्रीमी लेयर’ यानी अपेक्षाकृत समृद्ध वर्ग की पहचान कर उन्हें आरक्षण से बाहर रखना एक व्यावहारिक समाधान हो सकता है।

आरक्षण के साथ-साथ सरकार को इस समाज के लिए क्षेत्रीय विकास, शिक्षा के अवसर, तकनीकी प्रशिक्षण और स्वरोजगार योजनाएं शुरू करनी चाहिए, ताकि समुदाय की समग्र स्थिति में सुधार हो सके। केवल आरक्षण से दीर्घकालिक विकास संभव नहीं है; इसके लिए ठोस योजनाएं, पारदर्शिता और निष्पक्षता की जरूरत है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गुर्जर समाज की कुछ जनसंख्या आज भी पिछड़ी है और उन्हें सहयोग की जरूरत है। लेकिन पूरे समुदाय को एकसाथ आरक्षण देने से पहले यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जो वास्तव में वंचित हैं, लाभ उन्हीं तक पहुंचे। आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक न्याय है, न कि राजनीतिक संतुलन साधना। यदि इस उद्देश्य को ध्यान में रखा जाए, तो यह समाज की प्रगति और समरसता के लिए सार्थक हो सकता है। गुर्जर समाज की यह नाराज़गी केवल आरक्षण की नहीं, बल्कि “विश्वासघात” के खिलाफ है। बार-बार के अधूरे समझौते और न्यायिक अड़चनों के चलते समाज में हताशा बढ़ती जा रही है। सरकार को अब ज़मीनी स्तर पर काम कर समाज के विश्वास को बहाल करना होगा, नहीं तो ऐसी घटनाएं फिर सामने आएंगी, जिससे जनजीवन और देश की अर्थव्यवस्था दोनों प्रभावित होंगी।

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