जोधपुर, राजस्थान: विश्व पृथ्वी दिवस पर एक दर्दनाक दृश्य ने पर्यावरण संरक्षण के तमाम दावों को कठघरे में ला खड़ा किया है। रघु नामक एक काले हिरण की केमिकल युक्त गंदे पानी से मौत हो गई। जब स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता शुद्ध जल के टैंकर की प्रतीक्षा करते हुए भ्रमण पर निकले, तब यह हृदयविदारक मंजर उनकी आंखों के सामने आया, रघु मृत अवस्था में पड़ा था उसकी आंतें फटी हुई थीं।

यह घटना केवल एक वन्यजीव की मृत्यु नहीं है। यह हमारे समाज, व्यवस्था और तथाकथित विकास मॉडल पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह है। यह रघु की नहीं, हमारी चेतना की मृत्यु है उस चेतना की, जो कभी प्रकृति को माता मानती थी।

हमने “विकास” को ऐसी दिशा दे दी है, जो सिर्फ कंक्रीट, रासायनिक उद्योग और जलस्रोतों के दोहन तक सीमित रह गई है। क्या हमने कभी सोचा कि इस “प्रगति” की कीमत कौन चुका रहा है? नदियाँ सूख रही हैं, जंगल सिमट रहे हैं, और उनके मूल निवासी वन्यजीव दम तोड़ रहे हैं। कल विश्व पृथ्वी दिवस था। एक दिन जब हम पर्यावरण की बात करते हैं, लेकिन साल भर उसे नजर अंदाज करते हैं। सवाल ये नहीं कि रघु क्यों मरा, सवाल ये है कि हम कब तक आंखें मूंदे रहेंगे?

क्या विकास का मतलब सिर्फ GDP की ग्रोथ है, या वह संतुलन है जिसमें मानव, प्रकृति और पशु-पक्षी सभी की हिस्सेदारी हो?

क्या यह दृश्य आपके एजेंडे में कहीं जगह पाएगा? या फिर रघु की मौत भी सिर्फ आंकड़ों में गुम हो जाएगी?

 

धरती माता पर यह बोझ कब तक उठाया जा सकेगा? रघु की चुप मौत, हमसे बहुत कुछ कह रही है क्या हम सुनने को तैयार हैं?

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